हिंदी के पुरोधा
मैं एक हिंदीप्रेमी व लेखक (कुछ हद तक) के नाते पूरे भारत व उसके नागरिकों से आह्वान करना चाहता हूँ कि हिंदी सहित हमारी सभी भाषायें मातृतुल्य हैं और सर्वजनों को इनका सम्मान सदैव करना ही चाहिए। मैं एक भाषा के अन्य पर अधिपत्य को स्वीकारने के पक्ष में नहीं हूँ, किंतु हमें यह भी समझना होगा कि जबतक हमारी भाषाओं के बीच आपसी समन्वय स्थापित नहीं होगा, तबतक हम भाषाई विविधाताओं को स्वीकारने में हम असमर्थ साबित होते रहेंगे। मैं एक भाषाप्रेमी के तौर पर भी सभी को आशवस्त करना चाहता हूँ कि हमारी भाषाओं के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलना चाहिए और ऐसा किसी राजनीतिक व अराजनीतिक हस्तक्षेप के बगैर ही मुमकिन है। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होने से हमारी भाषाओं की विविधताओं में वृद्धि ही होगी और वे शाब्दिक रूप से भी समर्थवती साबित होंगी। हमारे यहाँ का एक धड़ा हमेशा यही साबित करने में लगा रहता है कि हमारी भाषाओं को उनके रहमोकरम पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि इन तथाकथितों का मानना है कि ये जनभाषाएं किसी भी रूप में इनके जागीर हैं और अपने पूर्वजों की संपत्ति की तरह उनकी पोटली में ये